सुख-दु:ख मन के भाव


अच्छा लगता है हमको सम्पन्न घरों में रहना
सोना नरम बिस्तरों पर, खाना स्वादिष्ट चीज
स्वेच्छा से लेकिन धरती को जो बना बिछौना
छत आसमान को मान खुले में सोते हैैं
आनंद नहीं कम मिलता उनको आलीशान मकानों से।
डरते हैं हम, भिखमंगों जैसा जीवन त्रासद लगता है
स्वेच्छा से पर घर-बार छोड़ जो बन जाते हैं संन्यासी
उनको वह घोर अभावों का भी जीवन सुंदर लगता है।
कष्टों से हम डरते हैं कोशिश करते हैैं
जीवन में ज्यादा से ज्यादा हों सुविधाएं
पर घोर तपस्या करने वाले ऋषियों को
अपने शरीर को ज्यादा से ज्यादा कष्टों
के बीच तपाने में अनुपम सुख मिलता है।
है मृत्यु डराती हमको, आती है नजदीक कभी तो
हम अधमरे, मौत के पहले ही हो जाते हैैं
पर भगत सिंह के जैसे भी होते हैैं लोग कई जो
अपने सिद्धांतों की खातिर हंसते-हंसते ही
फांसी के फंदे को भी गले लगाते हैैं।
दरअसल नहीं है सुख-दु:ख का अस्तित्व स्वयं में कोई भी
मजबूरी में जो चीज पड़े सहनी, है दु:ख बस वही
हमारे मन को जो भी रुचता है, सुखकर वह हमको लगता है।
इसलिये साधता हूं मन को, होने देता हूं नहीं निरंकुश उसको
पानी जैसा नीचे बहते जाने की बजाय
दीपक की लौ सा, जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में
ऊपर उठने की कोशिश करता हूं
घनघोर संकटों में भी अब
आनंदित खुद को रखता हूं।
रचनाकाल : 29-30 जून 2021

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