बढ़ती उम्र, ठहरता जीवन


गलतियां बहुत मुझसे पहले भी होती थीं
एहसास मगर तब मरा नहीं था खुद को गलत समझने का
कर सकूं भले न सुधार मगर कोशिश तो इसकी करता था
अपनी अपूर्णता का रहता था भान
नहीं होने पाता था अहंकार हावी मेरे मन के भीतर
फुरसत ही मिलती थी न कभी इतनी
कि दूसरों की गलतियां निकाल सकूं।
ज्यों-ज्यों पर बढ़ती उम्र, भयानक ऐसा होता जाता है
अपनी सारी गलतियों को सही ठहराने की खातिर
मन अब गढ़ लेता है तर्क नये ही रोज-रोज
अपराधी नहीं बल्कि अब खुद को पीड़ित लगने लगता हूं
घटती जाती नम्रता, निरंतर होता जाता आक्रामक
गलतियां दूसरों की निकालता ढूंढ़-ढूंढ़, धज्जियां उड़ाता उनकी
खुद को बड़ा दिखाने की खातिर
बाकी सबका कद छोटा करता जाता हूं
जिन दुर्गुणों के लिये भय लगता था बचपन में कुछ बूढ़ों से
हे ईश्वर, मैं भी वैसा खूसट बुड्ढा होता जाता हूं!
रचनाकाल : 23 जुलाई 2021

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