विषम से यात्रा सम की ओर
शुरू-शुरू में तो मैंने
तप किया बहुत घनघोर मगर
अब थक जाता जब बुरी तरह
अब थक जाता जब बुरी तरह
तो साथ छोड़ती है कविता
मन कर्कश होने लगता है
जब तार बहुत ढीले थे मन वीणा के तो
मन कर्कश होने लगता है
जब तार बहुत ढीले थे मन वीणा के तो
सुर नहीं निकलता था सुमधुर
अब ज्यादा कस देता हूं तो
अब ज्यादा कस देता हूं तो
स्वर लहरी फटने लगती है
हों महावीर या बुद्ध सभी की
हों महावीर या बुद्ध सभी की
नियति यही होती शायद
घनघोर तपस्या से ही मिलता ज्ञान मगर
घनघोर तपस्या से ही मिलता ज्ञान मगर
फिर सम पर आना पड़ता है
होता है कोई बिंदु एक
होता है कोई बिंदु एक
जिसके आगे अति वर्जित होती है।
मैं भी चलता हूं साध संतुलन
मैं भी चलता हूं साध संतुलन
तनी हुई उस रस्सी पर
जिसके है दोनों तरफ खुदी गहरी खाई
है सरल बहुत चलना उस पर
जिसके है दोनों तरफ खुदी गहरी खाई
है सरल बहुत चलना उस पर
हो सरल अगर मन तो लेकिन
जो जितना होता जटिल, कठिन उसकी खातिर
जो जितना होता जटिल, कठिन उसकी खातिर
चलना उस पर हो जाता है
मैं अर्जित सभी जटिलताओं को छोड़
मैं अर्जित सभी जटिलताओं को छोड़
सरल फिर से होने की कोशिश करता हूं
बीहड़, दुर्गम, गिरि-गहन मार्ग को छोड़
बीहड़, दुर्गम, गिरि-गहन मार्ग को छोड़
सहज सीधे पथ को अब चुनता हूं
बेशक है सम का मार्ग बहुत संकरा जिस पर
बेशक है सम का मार्ग बहुत संकरा जिस पर
एकाग्र चित्त से चलना पड़ता है
यदि ध्यान जरा भी भटका तो
यदि ध्यान जरा भी भटका तो
गहरी खाई मेंं गिरने का डर रहता है
लेकिन उस चलने में है जो आनंद,
लेकिन उस चलने में है जो आनंद,
कहीं मिल पाता है वह और नहीं
उसी के लालच में अब सहज-सरल
तलवार सरीखी तेज धार पर चलता हूं
संतुलना साध कर मृत्यु और जीवन की पतली रेखा पर
अद्भुत कविताएं रचता हूं।
रचनाकाल : 30 जुलाई 2021
उसी के लालच में अब सहज-सरल
तलवार सरीखी तेज धार पर चलता हूं
संतुलना साध कर मृत्यु और जीवन की पतली रेखा पर
अद्भुत कविताएं रचता हूं।
रचनाकाल : 30 जुलाई 2021
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