वंचितों के पक्ष में
मेहनत के अतिरिक्त जरा भी मिलता है जब कुछ मुझको
मन भर जाता अपराध बोध से उन्हें याद कर
जिन्हें नहीं मिल पाता फल अपनी मेहनत का भी।
बेशक सबको फल मिल जाता तत्काल सभी कर्मों का
दुनिया होती इतनी सरल कि जैसे दो और दो मिलकर होते हैैं चार
कहीं होते न गिरि शिखर, होती कहीं न खाई
दुनिया अंतहीन दिखती समतल मैदान तो शायद नीरस कुछ-कुछ हो जाती
लेकिन जब पर्वत शिखरों के मन में, आ जाये यह अभिमान
कि वे हैैं श्रेष्ठ घाटियों की तुलना में
सुंदरता तब हो जाती है नष्ट विविधता की।
मैं नहीं चाहता दुनिया को कर दूं समतल मैदान
मिटाने खातिर लेकिन अहंकार गिरि शिखरों का
लेता हूं पक्ष हमेशा गहरी खाई का
गिरि शिखरों को हो जाये यह अहसास
घाटियों के बल पर ही उनका है अस्तित्व
नम्रता से सीखें वे झुकना
मस्तक ऊंचा रहे हमेशा वंचित जन का
करता इसीलिये मैं मेहनत का फल लेने से इंकार
छिन गयी है गरिमा जो भाग्यहीन लोगों की
जिनका सबसे नीचे होने से, होता आया है तिरस्कार
उनके जैसा जीवन जीकर
कोशिश करता हूं स्वाभिमान उनका लौटाने की।
रचनाकाल : 29 जुलाई 2021
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