दीप पर्व
वे सरल हृदय थे लोग
नहीं था जिनके भीतर तमस भरा
वे दीप जला दीवाली में
तम दूर भगाया करते थे
छुप कर जा बैठा अंधियारा
अब भीतर मन के कोने में
मैं कैसे उसको दीप जला कर दूर करूं?
हर रोज परिश्रम करता हूं
तम छंटता है कुछ, रोज जरा
जैसे ही गाफिल होता पर
छा लेता यह अंतर्मन को
लगता हैै मुझको महाकठिन
संग्राम जीतना भीतर बैठे रावण से।
देती हैैं पर हौसला दीप पंक्तियां
कि हासिल होगी विजय कभी न कभी
जब हारेगा तम भीतर का
जब विगलित होगा अहंकार
जब सरल हृदय बन जायेंगे सब लोग
उजाला छायेगा जब बाहर भी और भीतर भी
उस रोज मनाना हो जायेगा सफल दिवाली भी।
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