मेहनत का धन
पहले जब धन मिल जाता मेहनत बिना
बहुत खुश मैं हो जाया करता था
संतुष्टि नहीं पर मिल पाती थी उससे
मेहनत से आता जो पैसा
उससे पहले जैसी खुशी नहीं मिल पाती थी।
इसलिये मिलावट करना मैंने छोड़ दिया
यह समझ गया जो मिलता मेहनत बिना
चुकानी पड़ती उसकी कीमत मेहनत के धन को
है दुनिया में अतिरिक्त कहीं कुछ नहीं
मुफ्त का माल समझ दरअसल उड़ाते हम जिसको
उसकी भरपाई करता कोई अपने खून-पसीने से
खाई बढ़ती जाती समाज में इससे
होते हैं अमीर जब पहले से ज्यादा अमीर
तब निर्धन भी पहले से ज्यादा निर्धन होते जाते हैं
दिखते हैं दु:खी दरिद्र हमें बाहर से पर
सच तो यह है जो निर्धन की कीमत पर बनते धनी
सुखी मन से तो वे भी कहां कभी रह पाते हैं !
रचनाकाल : 12 फरवरी 2024
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