शब्दों की खेती
खेती करता हूं शब्दों की, कविता की फसल उगाता हूं
सुख मिलता है अनुपम जब होती बम्पर पैदावार।
कई बार मगर पड़ जाता है दुष्काल
बाढ़ या सूखे की जब चढ़ जाती हैं भेंट
कई कविताएं तब मर जाती हैैं बेमौत
निराशा मन में छाने लगती है।
कोशिश करता हूं इसीलिये
आये न परिस्थिति फिर घनघोर गरीबी की
डर लेकिन लगता इससे भी
हो जाऊं न अति सम्पन्न कहीं
दुख-कष्ट सहन सीमा के भीतर रहें तभी
अच्छी कविता बन पाती है।
फसलों से भी ज्यादा लेकिन रखना पड़ता है ध्यान
खेत की बनी रहे उर्वरता
होने पाये कहीं न बंजर वह केमिकलयुक्त उर्वरकों से
इसलिये साधता हूं शरीर को यम-नियमों का पालन कर
बचता हूं चमक-दमक से नकलीपन की
हो माहौल प्राकृतिक सहज तभी पौष्टिक कविता बन पाती है
जो दुनियाभर को पोषण दे, मुझको भी कर दे मंत्रमुग्ध।
रचनाकाल : 23 अगस्त 2022
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