उम्मीदों के दीप


जब हार मान जाता था मैं आसानी से
प्रतिकूल प्रकृति भी रहती थी मुझसे हरदम
लगता था मुझको, दोष नहीं मेरा कोई
जब सारी चीजें हों खिलाफ तो
मैं ही क्या, कोई भी क्या कर सकता है!
नदियों की बहती धारा को
पर्वत शिखरों की ओर भला
कौन मोड़ फिर सकता है?
लेकिन जब से ठाना हूं दीपक की लौ सा
उम्मीदों को हर हाल में ऊपर रक्खूंगा
कितनी भी आ जाये प्रतिकूल परिस्थिति पर
जब तक जीवित हूं, हार न हर्गिज मानूंगा
अद्भुत है घोर अंधेरे में भी
राह सूझती जाती है
बाधाएं पैदा करती थी जो प्रकृति कभी
अब खुद ही वह रौशनी दिखाती जाती है।
रचनाकाल : 21 अगस्त 2022

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