उनकी तू-तू मैं-मैं, हिंसा पीड़ित बचपन और हीटवेव का हाहाकार
जिन्होंने भी सास-बहू की तू-तू मैं-मैं सुनी होगी, वे जानते होंगे कि उनके बीच शब्दों के व्यंग्य-बाण किस तरह छोड़े जाते हैं. एक-दूसरे को नीचा दिखाने के चक्कर में वे अपने तरकश में शब्दों के नायाब तीरों का इजाफा करती रहती हैं! राजनीति में भी लगता है इन दिनों यही हो रहा है. एक-दूसरे को पछाड़ने के लिए नए-नए नुकीले शब्द गढ़े जा रहे हैं. दुनिया के और किसी देश में शायद इस तरह की चटपटी राजनीतिक लड़ाई नहीं होती होगी! कदाचित यह हम भारतीयों की ही विशेषता है कि जहां भी तमाशा होता है, हम मजमा लगा कर देखने लगते हैं और वोट पाने के लालच में हमारे कुछ नेता मसखरों जैसा बर्ताव करने में भी नहीं हिचकते. लेकिन हमारे नेताओं को क्या पता है कि इस नूरा-कुश्ती से देश को कोई लाभ नहीं होगा! उनको पता हो, न हो, जनता को यह पता होना चाहिए कि विकास के असली मुद्दों की कीमत पर रचे जा रहे इस प्रहसन में उसे मजा भले ही आए लेकिन इससे उसका भला होने वाला नहीं है.
भला तो दुनिया में होने वाली लड़ाइयों से बच्चों का भी नहीं हो रहा है. वे दिन हवा हुए जब लोग एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सहभागी होते थे. अब कोई मरे या जिये, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसा सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं हो रहा, देशों को भी अब शेष दुनिया के दु:ख-दर्द से जैसे कोई मतलब नहीं दिखता, संबंध वहीं तक रखे जाते हैं जहां तक अपना स्वार्थ सधे. नुकसान अपना न हो तो दुनिया चाहे लड़े-मरे, कोई फर्क नहीं पड़ता. बड़ों की इस क्रूरता को सहने के लिए बच्चे शायद अपने भीतर ताकत जुटा रहे हैं! इसीलिए लंबे समय से बमबारी के बीच जी रहे गाजा और यूक्रेन में बच्चों का व्यवहार बदल गया है, वे अपना दर्द छिपा रहे हैं, खुद को मजबूत दिखाने की कोशिश कर रहे हैं. डॉक्टरों को समझ में ही नहीं आ रहा कि वे उनका इलाज कैसे करें क्योंकि वे अपने घावों की शिकायत नहीं करते, बताते ही नहीं कि दर्द कहां हो रहा है. ऐसा दुनिया के हर हिंसाग्रस्त इलाके में हो रहा है, गाजा, यूक्रेन, सीरिया, यमन हर जगह ऐसे ही हालात हैं, दुनिया का हर छठवां बच्चा इस समय हिंसाग्रस्त इलाके में रह रहा है. कौन जाने, सदमे में जी रहे इन बच्चों का व्यवहार बड़े होने पर कैसा होगा! पर वे जो भी करेंगे, उसके जिम्मेदार क्या हम ही नहीं होंगे?
जिम्मेदार तो इन दिनों देशभर में चलने वाली हीटवेव के भी खुद हम ही हैं. विकास के नाम पर एक तरफ तो हम सुख-सुविधाओं के आदी होते हुए अपने शरीर को नाजुक बनाते जा रहे हैं, दूसरी तरफ पर्यावरण को प्रदूषित करते हुए प्रकृति को रौद्र रूप दिखाने के लिए मजबूर कर रहे हैं. अति सिर्फ हमारे स्वभाव में ही नहीं, मौसमों में भी आती जा रही है, जिसका नतीजा हम भयावह बाढ़ या भीषण गर्मी के रूप में देख रहे हैं. पर हिंसापीड़ित बच्चों की तरह हमारा शरीर भी क्या इन कठोर बदलावों का आदी हो पाएगा! या डायनासोर की तरह हम मनुष्य भी इतिहास का एक अध्याय बनकर रह जाएंगे?
(9 मई 2024 को प्रकाशित)
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