ख्वाहिश


ये जो दीखता है पहाड़-सा
मैं हूं काम कर चुका ढेर-सा
ये न सोचना कि थका नहीं
कि हूं बैल मैं इंसां नहीं
मुझे कुछ न बदले में चाहिये
मैंने जो दिया सब मुफ्त है
बस एक छोटी सी अर्ज है
कभी जिक्र जब भी चले मेरा
चेहरे में ला लेना चमक
सम्मान से भर लेना मन
मेरी जिंदगी भर की थकन
उस वक्त दूर हो जायेगी
मेहनत सफल हो जायेगी।

मैं ये रहता व्याकुल देखकर
कि जो पालती हमें धरती मां
बर्ताव उसके ही साथ हमने ये क्या किया
बर्बाद पर्यावरण सब क्यों कर दिया?
नि:स्वार्थ भाव से फल हमें
ये जो देते पौधे-पेड़ सब
करते हमारा काम जो
दुत्कारते उन्हें बैल कह!
मैं नहीं अभी तक बन सका हूं
सहनशील उनकी तरह
इतनी उपेक्षा इसलिये
शायद नहीं सह पाऊंगा
कितनी भी कर लूं कोशिशें
आखिर तो मैं इंसान हूं
जो गुण प्रकृति के पास हैं
हासिल उन्हें करने को मुझको
जन्म लेने होंगे शायद सैकड़ों!
रचनाकाल : 3 मई 2024

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