वांछित-अवांछित
मैं ये सोचता था कि सृष्टि में
सबसे अधिक ज्ञानी बस हम इंसान हैैं
दुनिया बनी है हम मनुष्यों के लिये
सब पेड़-पौधे, जीव सचराचर
कभी जब हो सकेंगे पूर्ण विकसित
तब दिखेंगे शायद हम जैसे सभी!
किंतु जब तुलना शुरू की
गुण अधिक हैैं पास किसके
हो गया यह देख करके स्तब्ध
सारे जीव सचराचर
प्रकृति से ले रहे जितना
कहीं उससे अधिक वे दे रहे संसार को
बस एक हम ही जीव हैैं
जो दे रहे कुछ भी नहीं इस विश्व को
नुकसान ही पहुंचा रहे हैैं प्रकृति को!
होता अगर है जीव कोई लुप्त दुनिया से
असर पड़ता समूची श्रृंखला पर प्रकृति के
इंसान लेकिन हम अगर ले लें विदा
क्या तनिक भी तब काम दुनिया का रुकेगा?
जिस तरह कुछ माह में ही प्रकृति निखरी थी
लगा था लॉकडाउन जब कोरोना-काल में
लगता मुझे है डर कि धरती चाहती है
खत्म हो जायें सभी हम आदमी इस जगत से!
जिसको समझते थे प्रकृति में हम अभी तक उच्चतर
इंसान हम इस सृष्टि में ही हैैं नहीं क्या निम्नतर?
बनकर अवांछित चाहता मैं नहीं जीना धरा पर
कोशिश सदा इसलिये करता
ले रहा हूं प्रकृति से जितना
उसे लौटा सकूं मय ब्याज के।
रचनाकाल : 5 मई 2024
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