दु:ख खोजा, सुख मिला


जब था अभाव जीवन में, सुख का एक जरा सा कतरा भी
मन में अपार खुशियां भर देता था
सूखी मिट्टी में बारिश की हल्की फुहार भी अमृत जैसा लगती थी
अब हूं साधन-सम्पन्न मगर जीवन नीरस सा लगता है
रोमांच बनाये रखने को फिर कष्ट झेलने, जोखिम लेने का मन करता है
है अजब त्रासदी घाटी से गिरि शिखर मनोरम लगते थे
उत्तुंग शिखर से लेकिन अब घाटी आकर्षित करती है
दरअसल नहीं है सुख-दु:ख का अस्तित्व कोई, मन पर ही सबकुछ निर्भर है
मन के जीते है जीत, अगर मन हार जाय, लगती हर चीज निरर्थक है
जब तक यह समझ नहीं पाया था भेद, हमेशा व्याकुल-विचलित रहता था
मृग मरीचिका से सुख के पीछे हरदम भागा करता था
अब सहता हूं स्वेच्छा से सब दु:ख-कष्टों को, मन सदा प्रफुल्लित रहता है
जब से छोड़ा भागना सुखों के पीछे, सुख परछाईं जैसा मेरे पीछे-पीछे भागा करता है।
रचनाकाल : 3 सितंबर 2021

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