हिंसा और अहिंसा
कोशिश तो पूरी करता हूं हर हालत में स्थिर रहूं मगर
होता जब भी अन्याय, देखकर खून खौलने लगता है
बरसों के सतत परिश्रम से मन कुछ निर्मल हो पाता है
पर आगबबूला होता हूं जब, मैल दबी मन के भीतर की ऊपर झट आ जाती है
मैं नहीं चाहता हर्गिज चुप रहना अन्याय देख कर भी
प्रतिकार मगर हिंसक हो मेरा, यह भी है मंजूर नहीं
बेशक हिंसा में आग भरी होती है उत्तेजक जो मुझको भी आकर्षित करती है
होकर भी मैं पक्षधर अहिंसा का, ठण्डापन अपने भीतर नहीं चाहता हूं लाना
मेरे भीतर की आग मगर झुलसा न सके औरों को, करने खातिर उसे नियंत्रित
अपने गुस्से पर काबू पाने की पूरी कोशिश करता हूं।
है आग जरूरी बेहद, उसमें बिना तपे कुंदन भी नहीं निखर पाता
मेरे भीतर भी धधक रही जो आग चाहता नहीं बुझे
तपता हूं उसमें खुद को खरा बनाता हूं
जो आग निरंकुश होकर हिंसा बनकर करती है तबाह
मैं उसे नियंत्रित करके ठप्पा लगा अहिंसा पर जो ठण्डेपन का
वह धारणा बदलकर परिभाषा को नये सिरे से गढ़ता हूं
जिस ऊर्जा के बल पर हिंसा सबकुछ कर देती राख
अहिंसा को अपनी मैं उसके बल पर ही दमकाता हूं।
रचनाकाल : 31 अगस्त 2021
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