लड़ाई अपने आप से
मन इतना बंजर तो कभी नहीं रहा
कि लिख ही न सकूं कविता!
क्या हो गया है इन दिनों मुझे
कि डरने लगा हूं अपने आप से ही
ये वो मैं तो नहीं हूं जिसे
जानता रहा हूं इतने बरसों से!
ये कौन है जो हावी होता जा रहा है मुझ पर
अपने दुर्गुणों के साथ!
पथराते जा रहे शरीर पर
किसने जमा लिया है अपना अधिकार
और किये जा रहा है इसे मेरे ही खिलाफ!
इतनी भयानक तो कभी नहीं रही लड़ाई
कि दुश्मन बनती जाये अपनी देह ही
और संजोता रहा जिन सद्गुणों को जीवन भर
रौंदती चली जाये उन्हें खुद ही!
पाना चाहता हूं पहले जैसी
मासूमियत और निर्दोषिता
पर करता है भीतर ही कोई
राक्षसी अट्टहास
और घोंटता ही जा रहा है
गला मेरी कविता का!
Comments
Post a Comment