गांधी-जयंती


हार्दिक इच्छा है कि गांधी जैसा बनूं
सत्य और अहिंसा के रास्ते पर चलूं
पर जितना आसान है यह, कठिन भी है उतना ही
पहुंचाता है जब कोई अहं को चोट
तो फुफकार उठता हूं
और आता है जब नफे-नुकसान का सवाल
तो झूठ बोलने से भी नहीं रोक पाता खुद को
बेशक इसके पक्ष में जुटा लेता हूं ढेरों तर्क
और समझाता हूं अपने आप को दूसरों की तरह
कि बदल चुका है आज समय
और सम्भव नहीं है गांधी जैसा बन पाना
पर जानता हूं भीतर ही भीतर
कि समय नहीं बदला है
बल्कि बदल गए हैैं हम ही
और पीछे बहुत दूर छोड़ आए हैैं गांधी को
टांग दिया है दीवार पर
और करते हुए उनका स्तुतिगान
दे रहे हैैं धोखा अपने आप को
बनते ही जा रहे हैैं पाखंडी।

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