नियति नीलकण्ठ की
डरता हूं अपने भीतर के क्रोध से
क्योंकि जानता हूूं सिर्फ मैं ही
कि वह कितना प्रलयंकारी है
इसीलिये बचता उसको छेड़ने से
पर देखने में लगता बेहद सहनशील
इसीलिये कुछ क्रूर लोग
सीमा जब क्रूरता की लांघते हैैं
लेते हैैं परीक्षा सहनशीलता की
फुफकार उठता है मेरे भीतर का नाग
और तत्पर हो उठता है
उगलने को अपार विष
बेहद कठिनाई से तब रोकता हूं
बाहर निकलने से गरल को
पीता हूं सारा जहर भीतर ही
मुश्किल से बचता हूं मरने से।
बचना तो चाहता नहीं नियति से
विष पीना यदि नियति है तो ऐसा ही हो
आंच नहीं दूसरों पर आये यह चाहता हूं
खुद ही झेलूं सारे उसके दुष्प्रभाव
कोयला बदलता जैसे हीरे में
चाहता हूं दुनिया को अमृत दूं बदले में
सारा विष धारण करूं कण्ठ में
नियति स्वीकारूं नीलकण्ठ की।
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