अपनी शर्तों पर
कोशिश तो बहुत की थी बचाने की
पर सूख चुका है जीवन रस
नहीं बची है इतनी शक्ति
कि लिखना जारी रख सकूं कविता
छाता ही जा रहा है
आंखों के सामने अंधेरा
लड़ने में तो नहीं रखी कसर कोई
जीतती ही जा रही है मौत पर
जानता हूं टेक दूंगा घुटने तो
मौत मुझे बख्श देगी अभी भी
छोड़ नहीं सकता सिद्धांत पर
बेमकसद जीना मंजूर नहीं
रहना ही है जिंदा यदि तो
जीवन जिऊंगा अपनी शर्तों पर।
Comments
Post a Comment