अजनबी दुनिया में


रुका तो कहीं भी नहीं ज्यादा देर
फिर कैसे भटक गया रास्ता?
चारों तरफ फैला है मरुस्थल बियाबान
और ढलने लगी है सांझ
अब तक तो मिल जानी चाहिये थी
मानवों की बस्ती पर
दूर-दूर तक दिखता नहीं कोई आदमजाद
घिरने लगा है अंधेरा और
सुनाई देने लगी है निशाचरों की आवाज
माहिर हैैं रूप जो बदलने में
ओढ़े हैैं मनुष्यों का वेश भी।
तो क्या उन्हीं के साम्राज्य के बीच
काटनी होगी अब यह रात?
सिहर उठता हूं इस आशंका से ही
और  बढ़ाता हूं कदम तेज, और तेज
पहुंच सकूं ताकि अपने
सहजात मानवों की बस्ती तक।
दीखता पर कोई नहीं दूर तक
होना तो चाहिये था उन्हें यहीं!
बेहद हैरान-परेशान हूं
कि चले गये आखिर सब लोग कहां
मानवता से भरे हुए मानवों को
लील गई धरती
या निगल गया आसमान?

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