बर्बरता की जीत
बर्बरता बढ़ती जाती है
दुनिया में चारों ओर
भयंकर उतनी ही बर्बरता से
बर्बर लोगों से
लिया जा रहा है पूरा प्रतिशोध
नाच नंगा हिंसा का
दिन-दिन बढ़ता जाता है।
दिल दहल गया था मेरा
जब इजराइल पर कर हमला
कर दी थी हमास ने सभी क्रूरता पार
औरतों-बच्चों के प्रति कोई भी इंसान
भला कैसे इतना ज्यादा नृशंस हो सकता है!
पर फिलिस्तीन की करके नाकाबंदी
जब कर दिया शुरू इजराइल ने
फिर वहां कहर बरपाना
भूखे-प्यासे बच्चों-महिलाओं को
मरते देख तड़पते
फिर से दहल गया दिल मेरा
अपने समकालीन मनुष्यों की
यह देख नराधम हिंसा
चुप रह जाना क्या मानवता है?
पर पक्ष अगर मैं लूं भी तो आखिर किसका
मांगें दोनों की लगतीं मुझको सही
पक्ष दोनों पीड़ित, दोनों अपराधी
मुझे दिखाई देते हैं!
पर सर्वनाश के बीच
कहीं क्या नहीं भूमिका मेरी
उन इंसानों से क्या
अलग हृदय है मेरा
यदि छिड़ गया युद्ध
मेरे भी कभी वतन में तो
होकर क्या इतना ही तटस्थ
तब सही-गलत का निर्णय मैं कर पाऊंगा?
कंपकंपी छूट जाती है मेरी
सहसा ही यह सोच
नहीं हूं मैं बनने के
लायक न्यायाधीश
मुझे तो जो भी पक्ष दिखे पीड़ित
बस उसकी सेवा करनी है।
प्राणों की बाजी लगा मगर
बर्बरता से लड़ते जो दोनों पक्ष
उसी साहस से क्या मैं
पीड़ित लोगों की सेवा कर पाता हूं?
होता मुझको महसूस
अहिंसा की चादर को ओढ़
निरापद जीवन जीता जाता हूं
जो राह दिखाई गांधी ने
लड़ने की युद्ध अहिंसक
अपनी निष्क्रियता से उसको मैं
नाकाम बनाता जाता हूं
बर्बर हिंसा का विजय नाद
दुनिया में बढ़ता जाता है!
रचनाकाल : 11-13 अक्टूबर 2023
नाच नंगा हिंसा का
दिन-दिन बढ़ता जाता है।
दिल दहल गया था मेरा
जब इजराइल पर कर हमला
कर दी थी हमास ने सभी क्रूरता पार
औरतों-बच्चों के प्रति कोई भी इंसान
भला कैसे इतना ज्यादा नृशंस हो सकता है!
पर फिलिस्तीन की करके नाकाबंदी
जब कर दिया शुरू इजराइल ने
फिर वहां कहर बरपाना
भूखे-प्यासे बच्चों-महिलाओं को
मरते देख तड़पते
फिर से दहल गया दिल मेरा
अपने समकालीन मनुष्यों की
यह देख नराधम हिंसा
चुप रह जाना क्या मानवता है?
पर पक्ष अगर मैं लूं भी तो आखिर किसका
मांगें दोनों की लगतीं मुझको सही
पक्ष दोनों पीड़ित, दोनों अपराधी
मुझे दिखाई देते हैं!
पर सर्वनाश के बीच
कहीं क्या नहीं भूमिका मेरी
उन इंसानों से क्या
अलग हृदय है मेरा
यदि छिड़ गया युद्ध
मेरे भी कभी वतन में तो
होकर क्या इतना ही तटस्थ
तब सही-गलत का निर्णय मैं कर पाऊंगा?
कंपकंपी छूट जाती है मेरी
सहसा ही यह सोच
नहीं हूं मैं बनने के
लायक न्यायाधीश
मुझे तो जो भी पक्ष दिखे पीड़ित
बस उसकी सेवा करनी है।
प्राणों की बाजी लगा मगर
बर्बरता से लड़ते जो दोनों पक्ष
उसी साहस से क्या मैं
पीड़ित लोगों की सेवा कर पाता हूं?
होता मुझको महसूस
अहिंसा की चादर को ओढ़
निरापद जीवन जीता जाता हूं
जो राह दिखाई गांधी ने
लड़ने की युद्ध अहिंसक
अपनी निष्क्रियता से उसको मैं
नाकाम बनाता जाता हूं
बर्बर हिंसा का विजय नाद
दुनिया में बढ़ता जाता है!
रचनाकाल : 11-13 अक्टूबर 2023
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