स्वार्थ और परमार्थ

मैं पसोपेश में पड़ जाता हूं अक्सर
पूरी कर पाता जब नहीं स्वजन-परिजन की सभी अपेक्षाएं
सबके हैैं अपने निहित स्वार्थ, अपनी-अपनी आकांक्षाएं
पूरी न किया तो रुष्ट न हो जायें वे, यह भय लगता है।
है अजब त्रासदी मगर कि टकराती हैैं सबकी इच्छाएं
पूरी यदि करूं एक की तो दूजे को हानि पहुंचती है
खुश रखना सबको एक साथ सम्भव ही कभी न हो पाता।

इसलिये छोड़ संकीर्ण स्वार्थ, विस्तीर्ण जगत को चुनता हूं
हो भला समूची दुनिया का, अब काम वही बस करता हूं
याद आता है मुझको सूरज, जो देता है सबको प्रकाश
जल जाने के भय से जिसके पर पास न कोई जा पाता
मेरे भी जो अब रहता है नजदीक उसे तकलीफ झेलनी पड़ती है
कुंदन सा कोशिश करता हूं खुद निखर सकूं व निखार सकूं
पर बिना आग में तपे कहां यह सब सम्भव हो पाता है!

जो छोड़ न पाते निहित स्वार्थ वे दूर छिटकते जाते हैैं
नि:स्वार्थ भाव वाले पर दुनिया भर से जुड़ते जाते हैैं
मैं नहीं किसी का बचा निजी, पर सबका बनता जाता हूं
सब धरती-सूरज चांद-सितारे साथी बनते जाते हैैं।
रचनाकाल : 11 सितंबर 2022

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