गुलामी और आजादी


जब भी होना चाहता हूं
अपनी दिनचर्या से आजाद
कुछ दूर तक जाकर ही
लौट आता हूं घबराकर
जहाज के पंछी की तरह।
डरता हूं मन की निरंकुशता से
कि लाखों बलिदानों से
मिली है जो बेशकीमती आजादी
व्यर्थ न हो जाय कहीं वह
मेरी स्वच्छंदता से।
इसीलिये कसता हूं लगाम खुद पर
बनाता हूं गुलाम मन को
चुकाता हूं कर्ज बलिदानों का
महसूस करता हूं आजादी।

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