आजादी
परतंत्र तो नहीं हैं हम
जन्मना मिली है आजादी
फिर क्यों लगती है
कहीं कोई कमी सी!
मनाने के बावजूद
हर साल आजादी का पर्व
क्यों लगता है सब कुछ आडम्बर सा
और नहीं छू पाता दिल को!
क्यों महसूस होता है ऐसा
कि अनजानी बेड़ियों में
जकड़ते जा रहे हैं हम
और महसूस भी नहीं कर पा रहे
अपने मन की गुलामी की यातना!
कि लड़े बिना अपने हिस्से की लड़ाई
क्या नहीं पाई जा सकती
सच्चे अर्थों में आजादी!
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