रूपांतरण
डरता था मैं बंजर होने से बेहद
सूखना नहीं चाहता था यूं ही
लेकिन जब प्यासे लोग तड़पते हों
मेरे सब आसपास
मैं नहीं बचाकर रख सकता था
एक बूंद भी पानी की अपने भीतर
बेशक मैं होता चला जा रहा शुष्क
उगा सकता पर अपने भीतर कांटे नहीं
भले मर जाऊं लेकिन
जीवन तो जीना है अपनी शर्तों पर
है नियम यही यदि जिंदा रहने की खातिर
छीना-झपटी करनी होगी जीवन रस की
यदि वही बचेगा जो होगा बलवान
मारकर कमजोरों को उनकी ताकत हर लेगा
तो करता हूं इनकार नियम पर चलने से
मैं नहीं हरूंगा किसी और की एक बूंद भी नमी
सूखता भले चला ही जाऊंगा मैं लगातार
लाखों डिग्री का ताप-दाब भी सह कर नहीं झुकूंगा
हीरा बनकर दमकूंगा मैं बंजर धरती पर।
रचनाकाल : 25 फरवरी 2021
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