मरते दम तक


कुछ समझ नहीं पाता हूं गलती कहां हुई
कोशिश तो करता पूरी चलूं सही पथ पर
जाने क्यों पर मन में विकार भर जाता है
करते-करते संघर्ष निरंतर खुद ही से
थक कर निढाल हो चुका
मगर यह रुकने का है समय नहीं
हो जाऊंगा जब चिरनिद्रा में लीन
मिटा लूंगा थकान तब सारी
लेकिन अभी नहीं रुक सकता
चाहे कितना भी हो कठिन मार्ग
गंतव्य दूसरा बदल नहीं सकता
गिरते-पड़ते चाहे जैसे भी हो
बढ़ना ही होगा गिरि शिखरों की ओर
लगाता होड़ मौत से
बढ़ता ही जाता हूं
बंजर बीहड़ रेगिस्तान पार कर
बंजर होता जाता खुद भी
शर्त अगर है यही
कि रस की एक बूंद भी
बाकी बचे न भीतर
तो भी है मंजूर
मगर रुक सकता नहीं
किसी भी कीमत पर।
रचनाकाल : 1फरवरी 2021

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक