आधी रात का सपना
बात है आज की यह नहीं, साल बीते करोड़ों
घूमते थे धरा पर महाकाय प्राणी बहुतेरे
थी कमी तो नहीं कोई सब के लिये था सभी कुछ सुलभ
पेट भरने में सक्षम थी धरती सभी अपनी संतानों का
चाहती पर थी शायद जनम देना वो ऐसे इंसान को
जो दिलाये उसे सारे ब्रह्माण्ड में सबसे दर्जा अनूठा
था सरल तो नहीं साल लाखों लगे थे परिष्कार में
अंतत: पर सफल हो गई थी बनाने में मनुष्य को
था वो नाजुक बहुत बचना मुश्किल था उसका सहारे बिना
तब मदद की थी उसकी, धरा पर जो मौजूद थे चर-अचर
सब ने सोचा था तब ये कि उनका सहोदर समझदार है
नाम रोशन करेगा वो धरती मां का सारे ब्रह्माण्ड में।
समझदार तो था वो बेशक बहुत, की तरक्की अद्भुत
देह से पर हमेशा ही कमजोर सबसे रहा आया वो
सबका था लाड़ला उससे उम्मीद सारे चराचर को थी
इसलिये अपने हिस्से का सुख वो सभी उसको देते रहे
सारे कष्टों से बचता रहा और नाजुक वो बनता रहा
पैना मस्तिष्क लेकिन लगातार ही उसका होता गया।
ठीक तो था यहां तक, सभी को थी उम्मीद उससे बड़ी
पर भयानक हुआ यह, कदर वो न कर पाया दाताओं की
सबसे लेता गया फिर भी अहसान फरामोश होता गया
दूध देकर जिलाया था जिस धरती मां ने उसे
खून उसका ही होकर बड़ा चूसने वो लगा
अपनी मर्जी से पाला था जिन प्राणियों ने उसे
करके शोषण उन्हीं को वो धरती से करने लगा बेदखल!
थी प्रतीक्षा करोड़ों बरस की समूचे जो ब्रह्माण्ड की
सिर्फ वह ही नहीं मिल गई धूल में
बल्कि होने लगी सबको चिंता बचाने की अस्तित्व की
भय से व्याकुल सभी धरती मां से ये करने लगे प्रार्थना
खत्म कर दे वो बेटे को अपने जो उद्दंड था
बन गया सर्वभक्षी जो था खत्म करने पे सबको तुला।
जैसा भी था मगर वो था टुकड़ा कलेजे का धरती मां का
इतना रोई धरा, हिचकियां-थरथराहट थमीं ही नहीं
जलजला सारे संसार में आ गया
डूबता ही गया आंसुओं में सब कुछ
रोते-रोते ही लाखों बरस के लिये धरती मां सो गई।
सहसा आंखें खुलीं चीख सुनकर कोई
तरबतर था पसीने से सारा बदन
सपना देखा था उसने भयानक कोई
थरथराहट अभी तक नहीं थी थमी
शांत जब कुछ हुआ, देखता क्या है वो
सो रहा सारा जग, बीतने को ही है रात आधी अभी
कोशिश करने लगा वो भी फिर सोने की
भूल ही पर नहीं पा रहा था उसे
सुन के जिसको जगा, चीख किसकी थी वो?
रचनाकाल : 9 फरवरी 2021
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