मस्तानों की नगरी
जब मन में हो उल्लास
मजा दुख-कष्टों को सहने में आता है
मरते तो सब हैं रो-धोकर
हो भगत सिंह के जैसा मन में जोश अगर
फंदा भी फांसी का फूलों का हार नजर आता है।
यह किस्सा मैंने सुना पिता से
पड़ता था अकाल बचपन में उनके अक्सर ही
कई बार अन्न का दाना भी
घर में बचता था नहीं
काटनी पड़ती थी अधपकी फसल
उसका निकाल कर दाना
चूल्हा जलता था तब सांझ ढले।
पड़ती थी कोई शिकन नहीं पर मन में
सारे भाई मस्ती से करते थे काम
शाम का खाना पांचसितारा होटल जैसा लगता था
दिन थे अभाव से भरे, आज भी पर उनको
स्मृतियां सुनहरी अपनी लगती हैं।
चाहता यही हूं मैं भी
कोशिश करूं नहीं बचने की दुख-कष्टों से
अपने जज्बे से रंगीन बनाकर उनको
कर डालूं इतना आकर्षक
सुख भी शर्माये उनके आगे
गायब दैन्य भाव हो जाये दुनिया भर से
हो जिस हाल में जहां जो भी
जीने लगें सभी मस्ती में
धरती मस्तानों की नगरी ही बन जाय!
रचनाकाल : 11 फरवरी 2021
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