लौटने की छटपटाहट


कहानियां जब सुनता था बचपन में
मनुष्येतर जीवों की
लुभाता था संसार जादुई
बोलते थे पेड़-पौधे
जानवर भी, भाषा मनुष्यों की
अद्भुत था कल्पना का लोक वह
होती थी जीवंत हर एक चीज
कातती थी चरखा जो चांद पर
बुढ़िया कौतूहल जगाती थी।

बड़ा हुआ, जानी हकीकत जब
टूटता ही गया तब तिलिस्म सब
कटता गया मनुष्येतर जीवों से
दोहन कर सारे संसाधन का
बढ़ाता ही चला गया सुख-सुविधा।
जितना पर करता हूं तरक्की
नीरस उतनी होती है जिंदगी
पथराती जाती संवेदना
यहां तक कि लगता बेजान सा
अपना शरीर भी!

चाहता हूं फिर से सच मानना
कहानियों को बचपन की
बात करना चाहता हूं
पेड़-पौधों, चांद-तारों
सारे मनुष्येतर जीवों से
हिस्सा जो हड़पा है इन सब का
लौटा कर सबसे क्षमा मांग लूं
शामिल हो विस्तृत परिवार में
हिस्सा बनूं सचराचर जगत का
डराता ही जाता है मुझको यह
विकराल दानव विकास का।
रचनाकाल : 5 फरवरी 2021

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