हिसाब-किताब


आसानी से बेशकीमती चीज कोई हासिल होती है जब भी तो
मन भर जाता है मेरा पश्चाताप से।
मैं चढ़ता हूं गिरि शिखरों पर पैदल ही
करना उन्हें प्रदूषित वाहन से अपराध सरीखा लगता है
संघर्ष भरे पथ पर चलकर संतुष्टि सदा मिलती है
जब भी कभी शार्टकट लेने की कोशिश की तो पाया हरदम
कद मेरा अपनी नजरों में ही छोटा होता जाता है।
मैं रोज लगाता हूं हिसाब सोने से पहले रातों में
दिनभर में जितनी मेहनत की, उससे ज्यादा प्रतिफल तो हासिल किया नहीं!
जीने की खातिर तत्व लिये जो धरती और प्रकृति से
उनका कर्ज चुकाने की कोशिश में, की तो कोई कमी नहीं!
जिस दिन भी मुझ पर बाकी कोई रह जाता है कर्ज
चैन की नींद नहीं सो पाता हूं, सीने पर भारी बोझ सरीखा लगता है
अगले दिन जब तक चुकती नहीं उधारी, तब तक मन व्याकुल सा रहता है।
ना जाने दिन हो कौन आखिरी जीवन का
इसलिये नहीं बाकी रखता कोई हिसाब
बारी जब आये चिरनिद्रा में हो जाने की लीन
न सीने पर हो कोई बोझ, बकाया रहे न कोई कर्ज
मिली थी दुनिया जैसी मुझको, उससे बेहतर जाऊं छोड़ नई पीढ़ी खातिर।
रचनाकाल 21 नवंबर 2021

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