कविता और किसान


चाहता हूं मेहनत करूं
बढ़ कर मजदूरों से
बुद्धिजीवियों से ज्यादा
करूं मनन-चिंतन भी
बेशक यह मुश्किल है
जलती है बाती जब
दोनों किनारों से तो
तेल खत्म होता है शीघ्र ही
लेकिन नहीं चाहता कि
दिया तले अंधेरा हो
बिना श्रम की कविता और
कविता विहीन श्रम
दोनों अधूरे से लगते हैैं
इसीलिये करता हूं
मेहनत कड़ी धूप में
रोशनी में चांदनी की
लिखता हूं कविताएं
अद्भुत है, घटने के स्थान पर
बढ़ती ही जाती हैैं शक्तियां
सूरज के ताप से
होता शरीर पुष्ट
चांदनी से होता ऊर्जस्वित मन
होती जाती है सुंदर
जिंदगी यह सपनों सी
सपने जीवंत नजर आते हैैं
व्यग्र हूं कि दुनिया को
कैसे दिखाऊं यह
दुनिया जो सुंदर है
सपनों से भी बढ़कर
रास्ता गुजरता है
जिसका अपने आप को
दोनों सिरों से करके प्रज्ज्वलित!
रचनाकाल 13 नवंबर 2021

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक