तमसो मा ज्योतिर्गमय


चलता ही रहता है अंतर्द्वंद्व हमेशा
बीच असत् और सत् के
ईश्वर से हम करते आये हैैं बस यही प्रार्थना सदियों से
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
हर मानव के भीतर ही होते हैैं रावण और राम
लड़ाई लड़नी पड़ती है सबको ही, अपने-अपने हिस्से की
अपने ही भीतर के रावण का करना पड़ता है वध
रुकता नहीं कभी सिलसिला, अनवरत चलता है संग्राम।
दिवाली याद दिलाती है हमको हर साल
कि मर-मर कर भी रावण जी उठता हर बार
जरा भी हुए अगर हम गाफिल
रावण हो जायेगा हावी
बुझने पाये हर्गिज नहीं हमारे अंतर्मन का दीपक
भीतर रहे उजाला, मिले न मौका
तम को पैठ बनाने का।
दीवाली का त्यौहार हमें देता मौका हर साल
कि रुक कर करें तनिक पड़ताल
हमारे भीतर रावण रूप बदल कर पैठा तो है नहीं कहीं
दीपक अपने भीतर का हमने कहीं बुझा तो दिया नहीं
हम कहीं भूल कर आत्मनिरीक्षण
परंपरा को ही तो ढोते नहीं चले जाते हैैं सालोंसाल!
रचनाकाल : 4 नवंबर 2021

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