मनोहारी दुख-कष्ट



बढ़ने लगीं जब तकलीफें
छोड़ दिया लिखना
बचाने लगा शरीर को
कि दूर होंगे कष्ट जब
लिखूंगा तब बैठ करके चैन से।

छोड़ते ही कविता पर
होने लगा बंजर
अंदर ही अंदर
शरीर को तो बचा लिया पर
होती ही गई क्षीण आत्मा।

इसीलिये छोड़ता अब
चिंता शरीर की
लिखना शुरू करता हूं
दुख-कष्टों के बीच ही
कि बची रही आत्मा तो
जी लूंगा लिये हुए
नाजुक शरीर भी
आत्मा के बिना लेकिन
ढो नहीं पाऊंगा
बंजर सी देह को।
इसीलिये लिखता हूं
चलता पैनी धार पर
कटता ही जाता हूं
होता लहूलुहान
मनोहारी दीखता है
खून से रंगा शरीर।

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