रेगिस्तान
चिलचिलाती धूप में
चला आया मीलों तक
कहीं कोई छांव नहीं
तपता है सारा बदन।
सपने तो देखता था इसी के
चाहता था पार करना रेगिस्तान
डर तो कभी लगा नहीं
प्राण चाहे निकल जायें प्यास से।
लेकिन भयभीत हूं
बढ़ता हूं जितना ही आगे
होता महसूस ऐसा
भीतर से बंजर होता जाता हूं
सूखता ही जाता है प्राण रस।
ऐसा तो सोचा न था
बंजरता मिटाने को ही
चाहता था पार करना रेगिस्तान
कामना थी रेत को भी
हरा-भरा उपवन बनाने की।
लीलता ही जा रहा पर मुझे यह
भीतर से रेत होता जा रहा
मौत से तो डर कभी लगा नहीं
लेकिन यह बंजरपन
मुझको भयभीत करता जा रहा
कोई उपाय नहीं दीखता
इससे उबरने का।
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