जीना सिखाती कविता


कविता लिखी सुंदर
विचार भव्य-दिव्य थे
भूल गया उनको पर
जीवन में उतारना
अगले दिन बैठा जब लिखने तो
गायब थी कविता की आत्मा
कोशिश बहुतेरी की
शब्दों से उसको सजाने की
बन न पाई लेकिन वह प्राणवान।
ऐसा हमेशा ही होता है
जब भी मैं छोड़ता हूं
कविता के भावों को जीना तो
होने लगती है वह खोखली
काम नहीं आती है
बाजीगरी शब्दों की
होता हूं अपनी ही
नजरों में शर्मिंदा
देख करके अपना पाखण्डीपन।
इसीलिये लिखता जो
जीता भी उसको हूं
दूरी न बढ़ने पाये
कविता और जीवन में
रखता हूं चौकसी
बचता हूं सफलता की
भरमाने वाली चकाचौंध से
अक्सर असफलताएं ही
देती हैैं प्रेरणा
मुझको आगे बढ़ने की।
दुनिया सपनीली है कविता की
बनना नहीं चाहता पर
सपनों का सौदागर
कविता मुझे देती है साहस कि
खुद को लुटा सकूं
अद्भुत है बदले में
दुनिया मुझे सारी मिल जाती है
सारी दुनिया का मैं हो जाता हूं।
रचनाकाल : 21-26 जून 2021

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