बुराई
ऐसा नहीं कि मुझको था न पसंद
सभी के संग रहना घुलमिल कर
मेरे पास समय था नहीं मगर
दुनियादारी में डूब सकूं
इसलिये गांव में भी मैं सबसे
अलग-थलग ही थोड़ा सा रहता आया।
मुझको अच्छा लगता था
शहरों में रखते काम सभी बस खुद से ही
रहते हैैं व्यस्त स्वयं में
कोई नहीं अड़ाता टांग किसी के रस्ते में।
आया पर रहने महानगर में जब तो
धक्का लगा देख कर, यह तो नहीं अकेलापन वह
जैसा मैं गांवों में सोचा करता था!
बेशक हैैं सब तल्लीन स्वयं में
नहीं जानते नाम पड़ोसी का भी अपने
मानवता की डोर मगर जो
बांधे रखती है अजनबियों को भी
दिखती नहीं यहां तो वह भी लोगों के भीतर!
यह कैसा है निर्मम समाज
मर रहा अगर हो कोई सड़कों पर भी तो
निस्संग भाव से सभी चले जाते हैैं अपने रस्ते में!
अनासक्ति का भाव मुझे अच्छा लगता है गीता का
पर निरासक्ति के धोखे में यह तो कोरी निर्दयता है!
क्या ऐसा सम्भव नहीं कि गुण सब
शहरों में भी गांवों के आ जायं
बुराई दूर रहे दोनों की ही
मिट जाय भेद गांवों का शहरों का सारा!
भय है पर मुझको मेल कराने की कोशिश में
खत्म न गुण सब दोनों के हो जायं
बुराई दोनों की ही मिल कर हम पर हावी ना हो जाय!
इसलिये भूल कर भेद शहर-गांवों का
कोशिश करता हूं इंसान नेक बन पायें सब
यदि बेहतर बने मनुष्य
गांव या शहर सभी खुद ही बेहतर बन जायेंगे
दरअसल बुराई गांव-शहर में नहीं
स्वयं हम इंसानों के भीतर है।
रचनाकाल : 17 जून 2021
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