भयावह मंजर


भयभीत हूं कि देखते ही देखते
बदलता जा रहा है सब कुछ
और मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा।
इतना बढ़ गया है प्रदूषण
कि नॉस्टैल्जिक लगने लगा है अतीत
कि प्रगति के शिखर को
पीछे कहीं दूर छोड़ आए हैैं हम!
भयानक तो यह है
कि मन भी लगने लगा है प्रदूषित
और दुर्लभ लगने लगे हैैं
पहले की तरह भोले-भाले निर्दोष इंसान
सबसे भयानक तो यह है
कि अब पहले की तरह
कविताएं भी नहीं लिख पाता निर्दोष।
तो क्या अपने लेखन के शिखर को भी
पीछे छोड़ आया हूं कहीं दूर
और अब सिर्फ यादें बची हैैं मधुर अतीत की!
यह इंतेहा ही है भयानकता की
कि इन सब के बावजूद
जिये चला जा रहा हूं किसी रोबोट की तरह
बिना किसी वेदना संवेदना के
बनती ही जा रही है मरघट सी
दुनिया जो लगती जीवंत थी।

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