सही-गलत

पहले मैं डरता था
घिसी-पिटी रेखा पर चलने से
अक्सर निकल कर अपनी कक्षा से
सैर करने लगता था स्वच्छंद
चाहता था एक करना
जमीन और आसमान।

ढलने लगी है अब उम्र जब
डरता हूं भटकन से
चाहता हूं चलते जाना चुपचाप
अपनी ही कक्षा में
चलते जैसे सूरज-चांद
चलता है समूचा जैसे ब्रह्माण्ड।

समझ नहीं पाता हूं
अब हूं सही राह पर या पहले था
या कि सही दोनों ही जगह पर था!

आता है याद आइंस्टीन का
सापेक्षता का सिद्धांत
बन नहीं पाता हूं न्यायाधीश
लगती हैं सारी चीजें
सही अपनी जगह पर।


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