होली
सभ्यता की दौड़ में
ये कहां आ गये हम
कि जितना ही भागते हैं भविष्य में
उतनी ही तेजी से खींचती हैं
स्मृतियां अतीत की!
खुश था ग्लोबलाइजेशन से
कि विश्व मानव बन रहे हैं हम
पर यह तो बीमारियों का वैश्वीकरण है!
कि गले मिलना तो दूर
हाथ भी नहीं मिला सकते हम!
ऐसे तो कभी नहीं मनी थी होली
विकास के नाम पर कहीं
गलत दिशा में तो नहीं भागे जा रहे हम!
थोड़ी देर ठहर कर
चाहता हूं सोचना
पर इतनी तेज है समय की रफ्तार
कि भागता ही जा रहा हूं लगातार
बदलते ही जा रहे हैं रंग अपने
सारे तीज-त्यौहार।
रचनाकाल : 10 मार्च 2020
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