जीवनराम


मेरा नाम जीवनराम है
लोग मुझे यही कहते हैं
परंतु कौन? अंदर वाला या बाहर वाला!
लोग जीवनराम को टुच्चा समझते हैं
उसकी लफंगों के साथ दोस्ती है
किंतु कोई लड़की जब, अकेले सुनसान में
गुण्डों के चंगुल से, बचने को पुकारती है
मैं आगे बढ़, मुकाबला कर उन्हें भगाता हूँ
तब वह कृतज्ञता से पूछती है मेरा नाम
और मैं बताता हूँ जीवनराम।
परंतु कौन! अंदर वाला या बाहर वाला?

मेरे दोस्त मुझे चटोर समझते हैं
जब भी कुछ खाना हो-
मुझसे फरमाइश करते हैं
मैं उन्हें खिलाता हूँ, स्वयं नहीं खाता हूँ
और उन्हें बताता हूँ, मैं तो सदैव खाता हूँ।
किंतु कभी-कभी शाम को, डिनर के नाम को
कहीं कोई दोस्त मेरे घर में टपकता है
दरवाजे से पुकारता है ‘जीवनराम’
मैं चौंक पड़ता हूँ, अकस्मात बोल उठता हूँ
कौन जीवनराम! अंदर वाला या बाहर वाला?
किंतु शीघ्र ही स्वयं पर काबू पाता हूँ
अपनी सूखी रोटी पीढ़े तले छुपाता हूँ
और आकर उसे बताता हूँ,
मैं तो होटल में खाता हूँ।

कुछ लोग जानते हैं, जीवनराम दुरग्गा है
अंदर से सीताराम बाहर से फुग्गा है।
वे खुद को मेरा हितैषी बताते हैं
लोगों से बचने की राहें सुझाते हैं
किंतु जब चलते-चलते उधार मांगते हैं
अपनी ही सलाहों का शिकार बन जाते हैं
मैं उनको उन्हीं के बहाने बताता हूँ
उधार दिये बना ही उन्हें टाल जाता हूँ।
फलस्वरूप वे बची-खुची कसर
पूरी कर जाते हैं
और दोस्त के नाम पर
दुश्मन बन जाते हैं।

सब सोचते हैं
कि जीवनराम के मित्रों का मेला है
पर जीवनराम जानता है
कि वह कितना अकेला है
कभी-कभी मैं सोचता हूँ,
जीवनराम कौन है!
वह बाहर का मेला
या यह भीतर का अकेला?

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक