बंजर


मनोहारी है मौसम
छाये हुए हैं बादल
और पिघलती महसूस हो रही है
भीतर जमी बर्फ।
बहुत दिनों से नहीं हुई
अपने आपसे मुलाकात
देखा जब आज यों ही आईना
हो रहा खुद पर शर्मिंदा।

अभिमान था अपने आप पर
सिर्फ लिखता ही नहीं था कविताएँ
जीता भी था उन्हें
फर्क नहीं था लिखने और जीने में
कमजोर लेकिन था दुनियादारी में
भाग रहे थे लोग मेरे सामने
तरक्की की राह पर
पिछड़ता जा रहा था मैं
रोज-रोज लगातार।

इसीलिये एक दिन
स्थगित कर दिया लिखना
चल पड़ा मैं भी
तरक्की की राह पर
खुशी हुई देखकर
कि मानता था जिसे कठिन
बेहद आसान है वह
बुद्धि तनिक लगाकर
हुआ जा सकता है मालामाल
खरीदा जब एक प्लाट
महंगा लगा उस वक्त
कुछ ही दिनों में पर
भाव हुए दोगुना
चौगुना होने में भी
ज्यादा नहीं लगा वक्त
बैठे बिठाए घर में
कुछ ही सालों में
कमा लिये लाखों रुपए
समझ गया राज यह
कि कैसे धनी बनते हैं

दु:खद लेकिन यह हुआ
कि दूर होता गया अपने आप से
मोटी हुई चमड़ी, भूल गई सम्वेदना
बैठता था कभी-कभार
लिख नहीं पाता पर कविता
हद हो गई एक दिन जब
आफिस में कनिष्ठ ने
भेज दिया मुझको इस्तीफा
होकर आहत, मेरी फटकार से
बिजली सी कौंधी दिमाग में
आया याद, मैंने भी ऐसे ही
शुरुआती दिनों में
लिखा था त्यागपत्र
वरिष्ठों की क्रूरता से
हो करके आहत।
आफिस वही था पर
बदल गया था रोल
बन गया वरिष्ठ मैं।

हो गया हूँ आज मैं
निपुण दुनियादारी में
प्लाट है, बैंक बैलेंस है
कुछ ही दिनों में
घर भी बन जाएगा
भीतर से खुद को पर
खाली सा पाता हूँ
चिंतन-मनन का समय
चिंता में लगाता हूं
कि मुझसे भी घाघ हैं
दुनिया में लोगबाग
हड़प कहीं न ले जायें
मेरी सारी सम्पदा।

इसी दुनियादारी ने
सोख लिया पानी
हो गया हूं बंजर
नहीं उगती कहीं कोई
कविता-कहानी
बाहर से दीखता हूँ सम्पन्न
भीतर से उतना ही विपन्न हूँ
दे न पाई कविता जो
जीते जी छदाम भी
आज उसी मेधा के बल पर
लाखों कमाता हूं
कांधे पर लेकर उसी कविता का
शव ढोता फिरता हूँ।

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