निशाचर और देवता


जानता तो वह सब था
कमी नहीं थी कुछ ज्ञान में
पर नहीं कर पाया था अपने
वश में शरीर को.
रास्ता तो वह जानता था
दूर से ही दीखता था लक्ष्य
काँटे पर बीच में थे
जंगल पहाड़ थे
लाँघ कर पहुँचना था मंजिल तक
कहना लेकिन मानता शरीर नहीं
भागता ही जाता ढलान में
साथ लिये बुद्धि को
उसके हिसाब से जो
तर्क गढ़ती जाती थी.
इसी तरह चलते-चलते
दूर होता गया लक्ष्य
भूलता ही गया ज्ञान
दास बन शरीर का
भटकने लगा खाइयों में, खोहों में
लुप्त हुईं चोटियाँ
अँधेरा ही लगने लगा शाश्वत सत्य
कहलाने लगा वह निशाचर.

भाई था उसका ही जुड़वाँ जो
खास नहीं उसको कुछ ज्ञान था
वश में था उसके शरीर पर
डरता नहीं था जो काँटों से
बढ़ता ही जाता था पार कर
जंगल-पहाड़ों को
पहुँचा जब चोटी पर
सामने था तेजस्वी
सूर्य का प्रकाश-पुंज
जान लिया उसने
शाश्वत यह सत्य ही प्रकाश है
कहलाया देवता वह.

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