आत्मसम्मान


निरर्थक सी लगती है
कभी-कभी जिंदगी,
आजकल ज्यादा ही
महसूस होता है।
बदल रहे शब्दों के
अर्थ इतनी तेजी से
कि कविता भी लिखने का
मन नहीं करता है।
खो गई प्रतिष्ठा
कविताएँ लिखने को
समझते निठल्लापन
लोगबाग आजकल।
गलत भी नहीं हैं वे
हमने ही कविता में
सस्तापन भर दिया
शब्दों की बाजीगरी
बना करके रख दिया
काट दिया जीवन से।

इसीलिये आजकल
कविता को जीने में व्यस्त हूँ
सूखा जो जीवन रस
कविता की ठठरी से
उसे वापस लाने को
संघर्षरत हूँ
चाहता हूँ अपने से
नाभिनालबद्ध कर लूँ
अपने भीतर का सारा
रस उसमें भर दूँ
भले ही मैं सूख जाऊँ
कविता पर हरी-भरी हो जाय
छिन चुकी प्रतिष्ठा जो
वापस उसे मिल जाय
ताकि जब करे कोई शुरु आत
होना पड़े न उसे शर्मिंदा 
सिर ऊँचा करके बता सके
लिखता मैं कविता।

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