निशाचर

   
पढ़ते हैं बच्चे जब किताबों में
कि मिलती है ताजगी-
उठने से तड़के
लगती यह बात उन्हें
किस्से-कहानियों की.
जानता हूँ समझाना व्यर्थ है
इसीलिये करता हूँ कोशिश
खुद कर दिखाने की.
हमला लेकिन इतना जबर्दस्त है
कि टिक नहीं पाती हैं
मेरी अच्छाइयाँ.
चुम्बक जैसे रहते हैं चिपके
टीवी से देर रात
फैशन बन गया करना
डिनर आधी रात को.
नींद नहीं होने से
बेहद कठिन होता है
उठना सुबह-सुबह
उनींदी आँखों से ही
भागते हैं स्कूल वे.

बेमानी हो गईं
कहानियाँ रामायण की
काल्पनिक से लगते हैं राम-कृष्ण
बनते ही जा रहे अब
बच्चे निशाचरों से.

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