बलिदान


हताश तो अभी भी करती हैं असफलताएँ
पर नहीं होता अब क्षोभ
हद से गुजर कर
दवा बन चुका है दर्द।
शिकायत अब नहीं होती किसी से भी
शुक्रिया ईश्वर, कि बार-बार असफल कर
बनाये रखा तुमने मुझे, सही रास्ते पर
कठिन था छोड़ पाना मृगतृष्णा
पर छूट ही गई आखिर
धन्यवाद तुम्हारा
कि बरसों बरस धीरज रख
करते रहे मुझे असफल।
नहीं करूँगा अब और इंतजार
स्थगित नहीं होगा लिखना
मंजूर कर लिया है तिल-तिल कर गलना
क्योंकि खोने को अब कुछ बचा नहीं
और पाना कुछ मैं चाहता नहीं
इसके पहले कि तुम जबरन लो यह शरीर
कर देना चाहता हूँ, बलिदान मैं खुद ही।

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