चंदन पाण्डेय
ढूंढ रहा हूँ सुबह से कारण
कुछ पता नहीं चलता
महसूस होता है सिर्फ
जैसे चीरती जाती हो सीने को
कोई कर्कश ध्वनि
चिड़चिड़ा उठता है मन।
इतना ज्यादा तो नहीं था
ऑफिस में काम
कि खीझ जाऊँ बुरी तरह
घर में भी नहीं हुई
कोई खास तकरार
फिर क्यों पा रहा खुद को
इतना हताश!
अच्छी नहीं कटी रात
आँख लगते ही
बज उठा था फोन
रांग नंबर था शायद
या मैं ही उनींदा था!
सुबह उठकर देखता हूँ मोबाइल
कि सपना तो नहीं था?
दर्ज है उसमें लेकिन
पौने बारह बजे एक कॉल
पर करता हूँ जब कॉल बैक
आती है दूसरी तरफ से
अजनबी भाषा में,
अजनबी आवाज
ठीक सपने की तरह
और पड़ जाता हूँ दुविधा में
कि रात में जो देखा था
वह सपना था या यथार्थ!
प्रिय कहानीकार चंदन पाण्डेय का
पढ़ रहा था कल ब्लॉग
पुलिस की नृशंसता पर
शशिभूषण को समझा रहे थे वे
कि एक घण्टे भी रह लो हवालात में
तो याद रखोगे पुलिस को,
जिंदगी भर।
सचमुच, ऐसी ही है पुलिस
सोचता हूँ मैं कश्मीर
और पूर्वोत्तरवासियों के बारे में
बंद हैं जो सालों से हवालात में
बड़े भाई ही तो हैं आखिर
फौज वाले पुलिस के!
पढ़ी थी चंद दिनों पहले ही
जम्मू-कश्मीर वासी
फिरोज राठेड़ की दास्तान
और सो नहीं पाया था
इसी तरह रातों को।
प्रतिरोध का रास्ता
सूझता पर नहीं कुछ।
चाहता हूँ चंदन जैसा
शुरू करना ब्लॉग
पर उसकी खातिर चाहिये, लैपटॉप
जुट तो जायेंगे, किसी तरह पैसे मगर
हिचकिचाहट होती है
नहीं चाहता कि घुसे
मेरे घर में माइक्रोसॉफ्ट
पुलिस वालों से भी ज्यादा
डर मुझे लगता है बिल गेट्स से।
सपने में भी आजकल
यही सब डराते हैं
समझ नहीं पाती पत्नी
साबित होता हूँ सबकी
नजरों में सनकी
ठगा सा रह जाता हूँ
अपनी भी नजरों में।
सामने ही लगी हैं
दीमक की बॉबियाँ
रेंग रहे दीमक
धरती को चाटते
मेरे भी सीने में
कुलबुला रहा है कुछ
कुतर रहा दिल को।
सहसा ही बॉबियों को
लगती है ठोकर
बिखरती हैं दीमक
बिलबिलाती ढूँढ़ती
अपने मकान को
कहता मकान मालिक
उसके घर रोज-रोज
अनधिकार कब्जा ये करती हैं
उजाड़ता वह रोज-रोज।
मेरे भी सीने में
ठोकर सी लगती है
धमकाता है कोई
कहता है करता मैं
उसके घर रोज-रोज
अनधिकार कब्जा
उजाड़ता वह रोज-रोज।
करता मैं कोशिश
उसको पहचानने की
पाता हूँ सामने
वर्दी पहने पुलिस की
बिल गेट्स खड़ा है।
सहसा दीखते हैं उसके
पीछे खड़े चंदन
साधते निशाना उस पर
उसी के हथियार से
इशारे से देते मुझे सांत्वना
कि डरने की बात नहीं।
राहत सी मिलती है
चंदन को देखकर
नई-नई उम्र है
सीख कर उन्हीं के गुर
जान गए सारे भेद
कर चुके हैं एमबीए
उन्हीं के हथियारों से अब
कर रहे सामना
बना रहे योजना
करने उन्हीं को ध्वस्त
साथी अपना पाकर
थोड़ा आश्वस्त हूँ
कम हो गया है मेरा
थर-थर काँपना।
फिर भी नहीं जाती
मन की बेचैनी
ढूँढ़ता हूँ चारों ओर
व्याकुल नजरों से
दूर-दूर तक कहीं
दिखते नहीं गांधीजी।
छोड़ कर अब चंदन को
शत्रुओं से लड़ते हुए
ढूँढ़ रहा गांधी को
ताकि जब जीत कर
लौट आए चंदन
कहीं भटक न जाय मार्ग
दिग्भ्रमित न हो जाय
आखिर मैं बड़ा हूँ
दायित्व भी मेरा
उससे बड़ा है
कैसे छोड़ सकता भला
उसे मैं अकेला!
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