इंतजार
देर तक बैैठे रहने के बाद, नदी कनारे
मैं घर आया।
आते ही घर, मुझे गाँव की गंध लगी
अपने मन के सद्विचारों को
मैं इतनी जल्दी समाप्त होने देना नहीं चाहता था
इसलिए उठकर चला आया हूँ पुन:
खेतों में, पेड़ों के झुरमुट तले।
छाँव में बैठ, चाँदनी में नहाये अपने गाँव को देख
मैं पुन: अभिभूत होता जा रहा हूँ
अब माफ कर दिया है मैंने उन्हें
उनके भावी अपराधों के लिये भी।
अब मैं शांत चित्त होकर
घर लौट रहा हूँ
उनकी कोई भी बात
अब मुझे विचलित नहीं कर पाएगी
प्रकृत का असीम प्यार जो पा लिया है मैंने।
अब गाँव के निकट पहुँच
उनकी आवाजें सुनाई दे रही हैं
छोटे-छोटे झगड़ों में उलझे गाँव के लोग
विरोधियों की निंदा और षड्यंत्र बुनने में लीन हैं।
मेरे कदम भी अनायास ही
उस ओर बढ़ जाते हैं
पर मैं उन्हें बीच में ही रोक लेता हूँ
बातें सुन कर उनकी
क्योंकि मैं उन लोगों में से नहीं हूँ
वह मेरा समाज नहीं है
मैंने माफ जरूर कर दिया है उन्हें
पर उन्हें झेलना
मेरे लिये सम्भव नहीं हो पाएगा।
अब मुझे अहसास हो रहा है
कि प्रकृति का असीम प्यार
पाने के बाद भी
मैं अकेला हूँ
निपट अकेला
और जागते हुए मुझे यह रात
गुजारनी होगी, अकेले ही।
यह, जो सोये हुए हैं
पास होकर भी मेरे
बहुत दूर हैं
उतनी ही दूर
जितनी सुबह
और कोई चारा नहीं है मेरे पास
इंतजार करने के सिवा, सुबह का।
अब तो मेरे मन में शंका उठ रही है
कि जिसे मैं वरदान समझता रहा
कहीं वह अभिशाप तो नहीं!
Comments
Post a Comment