अवसाद


सोते-सोते रात में
अचानक उठ बैठता हूँ
देखता हूँ घड़ी में
बीत चुकी है आधी रात
नींद भरी है आँखों में
कारण समझ नहीं आता कुछ
इस तरह उठ जाने का।

सुबह लेकिन उठने में
मुश्किल बड़ी होती है
पीठ और सीने में
दर्द होता भयानक
सपना बन जाता है
रात का उठ बैठना।

दिन में भी कई बार
हैरान होता हूँ
खो गया सा लगता कुछ
याद नहीं आता पर
काँपने सा लगता हूँ
डर जाता याद कर
इसी तरह काँपते थे हाथ-पैर
मनोरोगी भाई के।

करता विचार जब समस्या पर
याद कई घटनाएँ आती हैं
क्र म लेकिन गड्ड-मड्ड होता है।
कुछ माह पहले ही
चल बसा है मित्र का
इकलौता लड़का बीमारी से
तुच्छ तब से लगते हैं
अपने सारे दु:ख दर्द।
काम बहुत रहता है आफिस में
शिकवा तो कुछ भी न था
गलती पर एक बार हुई जब
डाँट पड़ी, नोटिस मिला
गड़बड़ सब हो गया है तब से
एक ही मैटर को
बार-बार पढ़ता हूँ
काम लेट होता है
इतने पर भी नहीं मिलती संतुष्टि
रात को डर लगता है सपने में
गलती तो नहीं छूटी कहीं कोई?

दर्द दे रहा है सिर बेटे का
शिकायत महीनों से है
लेकिन शुरू हैं परीक्षाएँ
संकट गम्भीर है इसीलिए
समझाता हूँ उसको
चश्मा अगर लग गया एक बार
जिंदगी भर पीछा नहीं छोड़ेगा
इसीलिए खाया करो
चना अंकुरित और
पियो दूध आधा ग्लास।

सच लेकिन यह है
कि गड़बड़ा गया है बजट
पिछले कुछ महीनों में
गायब थी दाल तो
थाली से पहले ही
दूध के भी दर्शन
नहीं हुए महीनों तक।
बीमारी के भय से
दूध तो अब लाता हूँ
लेकिन नहीं हो रही
भरपाई कमजोरी की
सँभालने के चक्कर में
बिगड़ता ही जाता बजट
सूझता ही नहीं कुछ
बिगड़ता जाता संतुलन
बढ़ता जाता अवसाद।

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