शिखर की यात्रा


चढ़ा दिया है खुद को सान पर
बनना चाहता हूँ जीवित प्रयोगशाला
देखना चाहता हूँ, कितनी क्षमता है शरीर में
कहाँ तक जा सकता है मानव
शिखर की ऊँचाई पर।
सरपट दौड़ा था शुरू में तो
अनवरत काम किया सालोंसाल
कविताएँ भी बेमिसाल लिखा
थक गया शरीर फिर
लड़खड़ाने लगा कदम-कदम पर
सोचने लगा रुक कर
रास्ता क्या गलत था?
बीते बरस-दर-बरस
इसी कशमकश में
कोई नहीं आसपास
पूछ सकूँ जिससे सही रास्ता।
नक्शा जो पास था पर
देता पता था इसी रास्ते का
पहुँचे थे जो शिखर पर
गुजरे थे वे भी इसी रास्ते से
चलता रहा इसीलिये घिसट-घिसट
संचित कर ऊर्जा शरीर की।
दीखने लगा है अब तो क्षितिज पर
धुंधला प्रकाश भी।

चाहता बताना अब तो
रास्ते के बारे में
आयेंगे लोग मेरे बाद जो
कि देता नहीं दूर तक
साथ यह शरीर भी
दौड़ने के बाद
चुक जाती शक्ति जब
रेंगना भी पड़ता है
आत्मशक्ति के बल पर
लौट नहीं आयें वे
उस समय डर कर
भयभीत न हों सोच कर
कि भटक गए रास्ता।
जीवन यह रेस नहीं
सरपट मैदानों की
नदियाँ-पहाड़ भी हैं रास्ते में
जंगल भी करने पड़ते हैं पार
कोई नहीं शार्टकट
शिखर पर पहुँचने का
इसके सिवा कोई नहीं रास्ता।

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