दोष-पाप

  
अविश्वास तो रहा नहीं
जरूरत भी लेकिन कभी
पड़ी नहीं ईश्वर की
ढोता रहा सलीब अपनी
लज्जास्पद लगता था
पापों को अपने
ईश्वर को सौंपना.
देखा पर उस दिन जब
आलीशान गाड़ी में
सवार परिवार को
दे रहा था टुकड़े जो रोटी के
बाजू में खड़े उस भिखारी को
सिर से उतार अपने पाँव तक
दूर करने दोष-पाप
काँप गया भीतर तक.
फटेहाल है जो पहले से ही
कैसे भिखारी वह झेलेगा
बड़े-बड़े पापियों के दोष-पाप!
याद आया ईश्वर तब
हाथ जोड़ पहली बार
करने लगा प्रार्थना
संचित हों मेरे अगर पुण्य कुछ
मिलें वे इस कृषकाय भिक्षुक हो.
लालसा मुझे नहीं सुख-सुविधा की
पाता पर जैसे मैं
मिलती रहे भिक्षुक को भी दाल-रोटी
झेलना पड़े न उसे
दूसरों का दोष-पाप
इसीलिये करता अर्पण उसको
अपना सब पुण्य कार्य.

Comments

Popular posts from this blog

गूंगे का गुड़

सम्मान

नये-पुराने का शाश्वत द्वंद्व और सच के रूप अनेक