चौकीदार

व्याकुल हूँ लिखने को
बेहद उद्विग्न हूँ
बीत गए अनलिखे ही पाँच दिन
परसों ही पढ़नी है कविता
लिख नहीं पाया अब तक एक शब्द।

जब से आया है फोन
करना है कविता पाठ
तन-मन रोमांचित है।
बीत गए बीस साल
पाण्डुलिपियों से कई
भर गई हैं पेटियाँ
सोचने लगा था अब
मानता अनमोल जिन्हें
बिकेंगी वे कापियाँ
रद्दी के भाव से!

देरी से ही सही
दशकों के बाद जब
आ गया है समय अब
उनके प्रकाशन का
काँप रहे हाथ क्यों?
पत्नी जो टोकती थी
लिखते समय हरदम
आज वह भी चुप है
समय भी है ढेर सारा
ठहरी फिर कलम क्यों?
बढ़ रहा भय मन ही मन
बाकी के दो दिन भी
यों ही बीत जायेंगे
कुछ न लिख पाऊँगा
मिला है जो मौका यह
व्यर्थ चला जायेगा
रह जायेंगी पेटियों में
फिर से यों ही पड़ी
अभिशप्त पाण्डुलिपियाँ।

नहीं हैै यह पहली बार
हर बार ऐसा ही होता है
लिखता हमेशा हूँ
लेकिन जब आता मौका
उठा नहीं पाता हूँ फायदा
भीतर बैठा है कोई
चौकीदार लगातार।
समझाना चाहता हूँ
उसको दुनियादारी
करता पर ध्वस्त वह
सारी बहानेबाजी
अनावृत करता मुझे 
आईने के सामने।
पहुँच गई है दुनिया
जाने कहाँ से कहाँ
रोकता पर मुझे यह
करता हूँ कोशिश जब दौड़ने की
टांग खींच लेता है।

खीझता हूँ कभी-कभी
सोचता हूँ हत्या ही कर दूँ
जिंदा रहेगा यह तो
ऐसे ही रोकेगा
बढ़ने न देगा कभी
दुनिया के साथ-साथ।
जानता हूँ लेकिन यह
इसके बिना ज्यादा दिन
जी भी नहीं पाऊँगा
बनाया तो मैंने ही था
इसको अपना चौकीदार
अपने ही हाथों भला
गला कैसे घोंट दूँ?

चलती ही रहती है
मन में उधेड़बुन
इसी तरह हाथों से
मौके निकलते हैं
दौड़ती है सामने ही
दुनिया फर्राटे से
बाजू में खड़ा-खड़ा
देखता हूँ ठगा-ठगा। 

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