जीवन संध्या
ज्यादा नहीं बचा समय
छोड़नी होगी शिल्प की चिंता
कह देना होगा सब
जरूरी है जो
बिना किसी लाग-लपेट के
मोल लेकर भी
खतरा बुरा लगने का।
बढ़ता ही जा रहा
दर्द जो था सीने में
इसके पहले कि यह
बन जाय जानलेवा
करना होगा काम खत्म।
सोचा तो था न कभी
इतनी छोटी होती होगी जिंदगी
खेलता ही रह गया, शब्दों से
उसके भिन्न-भिन्न अर्थों से
होता रहा चमत्कृत
करता रहा चमत्कृत।
होते ही हासिल महारत पर
पता चला अचानक
समय भी निकल गया!
मुट्ठी से रेत सा फिसल गया!!
इसीलिये व्याकुल हूं
बचा खुचा वक्त है जो
कह देने को उसमें
किसी तरह सारा कुछ
व्यस्त हूं।
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